• शायर-ए-इंकलाब की आत्मकथा

    शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-जोरदार उनकी जिंदगी थी

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    - जाहिद खान

    शायर-ए-इंकलाब जोश मलीहाबादी का अदबी सरमाया जितना शानदार है, उतनी ही जानदार-जोरदार उनकी जिंदगी थी।  जिस दिलचस्प अंदाज में उन्होंने 'यादों की बरात' किताब में अपनी कहानी बयां की है, उस तरह का कहन बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है। मूल रूप से उर्दू में लिखी गई इस किताब का पहला एडिशन साल 1970 में आया था। । 'यादों की बरात' की मकबूलियत के मद्देनजर, इस किताब के कई जबानों में तजुर्मे हुए और हर जबान में इसे पसंद किया गया। हिंदी में भी इस किताब का सबसे पहले अनुवाद हिंदी-उर्दू जबान के मशहूर लेखक हंसराज रहबर ने किया था। एक लंबे अरसे के बाद 'यादों की बरात' का एक और अनुवाद आया है। इस मर्तबा यह अनुवाद नौजवान लेखिका-अनुवादक नाज खान ने किया है। अनुवाद के बजाय इसे लिप्यंतरण कहें, तो ज्यादा बेहतर ! उर्दू जबान के लबो-लहजे से जरा सी भी छेड़छाड़ न करते हुए, उन्होंने इस किताब का हिंदी जबान में जो तर्जुमा किया है, उसे पढ़कर उर्दू जबान की लज्जत आ जाती है। यही एक अच्छे अनुवाद की पहचान भी है, कि मूल जबान का लहजा बरकरार रहे। 

    'यादों की बरात' जोश मलीहाबादी ने किताब अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त में लिखी थी।  किताब में उन्होंने यह बात तस्लीम की है कि अपने हालाते-जिंदगी कलमबंद करने के सिलसिले में उन्हें छह बरस लगे और चौथे मसौदे में जाकर वे इसे पूरी कर पाए। हांलाकि, चौथे मसौदे से भी वे पूरी तरह से मुतमईन नहीं थे। लेकिन जब किताब आई, तो उसने हंगामा कर दिया। अपने बारे में इतनी ईमानदारी और साफगोई से शायद ही किसी ने लिखा हो। अपनी जिंदगी के बारे में वे पाठकों से कुछ नहीं छिपाते। यहां तक कि अपने इश्क भी, जिसका उन्होंने अपनी किताब में तफ्सील से जिक्र किया है। अलबत्ता जिनके इश्क में वे गिरफ्तार हुए, उनका नाम जरूर कोड वर्ड में दिया हुआ है। किताब पांच हिस्सों में है। पहले हिस्से में जोश की जिंदगी के अहम वाकए शामिल हैं, तो दूसरे हिस्से में वे अपने खानदान के बारे में पाठकों को बतलाते हैं।

    किताब के सबसे दिलचस्प हिस्से वे हैं, जब जोश अपने दोस्त, अपने दौर की अजीब हस्तियां और अपनी इश्कबाजियों का खुलासा करते हैं। जिन दोस्तों मसलन अबरार हसन खां 'असर' मलीहाबादी, मानी जायसी, 'फानी' बदायूंनी, आगा शायर कजलबाश, वस्ल बिलगिरामी, कुंवर महेंन्द्र सिंह 'बेदी', पं. जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार दीवान सिंह 'मफ्तूं', 'फिराक' गोरखपुरी, 'मजाज' वगैरह का उन्होंने अपनी किताब में जिक्र किया है, वे खुद सभी मामूली हस्तियां नहीं हैं, लेकिन जिस अंदाज में जोश उन्हें याद करते हैं, वे कुछ और खास हो जाते हैं।

     किताब में सरोजनी नायडू का तआरुफ वे इस तरह से करते हैं,''शायरी के खुमार में मस्त, शायरों की हमदर्द, आजादी की दीवानी, लहजे में मुहब्बत की शहनाई, बातों में अफसोस, मैदाने जंग में झांसी की रानी, अमन में आंख की ठंडक, आवाज में बला का जादू, गुफ्तगू में मौसिकी, जैसे-मोतियों की बारिश, गोकुल के वन की मीठी बांसुरी और बुलबुले-हिंदुस्तान, अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजिनी की-सी हस्तियां न पैदा करता, तो पूरा हिंदुस्तान बिना आंख का होकर रह जाता।'' (पेज नम्बर-367)

    'मेरे दौर की चंद अजीब हस्तियां' इस हिस्सें में जोश मलीबादी ने उन लोगों पर अपनी कलम चलाई है, जो अपनी अजीबो-गरीब हरकतों से उन्हें ताउम्र याद रहे और जब वे कलम लेकर बैठे, तो उन्हें भुला नहीं पाए। जोश ने बड़ी किस्सागोई से इन हस्तियों का खाका खींचा है कि तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं। किताब की ताकत इसकी जबान है, जो कहीं-कहीं इतनी काव्यात्मक हो जाती है कि पद्य का ही मजा देती है। मिसाल के तौर पर सर्दी के मौसम की अक्कासी वे कुछ इस तरह से करते हैं,''आया मेरा कंवार, जाड़े का द्वार. अहा ! जाड़ा-चंपई, शरबती, गुलाबी जाड़ा-कुंदन-सी दमकती अंगीठियों का गुलजार, लचके-पट्टे की रजाइयों में लिपटा हुआ दिलदार, दिल का सुरूर, आंखों का नूर, धुंधलके का राग, ढलती शाम का सुहाग, जुलेखा का ख्वाब, युसुफ का शबाब, मुस्लिम का कुरान, हिंदू की गीता और सुबह को सोने का जाल, रात को चांदनी का थाल।'' (पेज नम्बर-49) यह तो सिर्फ एक छोटी सी बानगी भर है, वरना पूरी किताब इस तरह के जुमलों से भरी पड़ी है। 'यादों की बरात' को पढ़ते हुए यह एहसास होता है कि कि जैसे हम भी जोश मलीहाबादी के साथ इस बरात में शरीक हो गए हों। हिंदोस्तां के उस गुजरे दौर, जब मुल्क की आजादी के लिए जद्दोजहद अपने चरम पर थी और तमाम हिंदुस्तानी कद्रें अपने पूरे शबाब पर थीं, उन्हें अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए भी यह किताब पढ़ना बेहद जरूरी है।

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